Thursday, October 7, 2010

चारोळ्यांचे जग..... (Contd. IV)

सगळा सारा खेळ... 
फक्त भावनांचा...
दोन जिव जगतात एकत्र
आणी बस..... 

नंतर केवळ पाणी
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आजकाल मनं तर
चालत्या ट्रेन मध्येही जुळतात....
पण अशी नाती फोनवर सुरु होऊन
फोनवरच संपतात
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ओलावल्या पापण्यांना
भावनांची जोड देतो...
तुझ्या माझ्या नात्याच्या खुणा
मी शब्दात माळतो
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वेड्या आठवांत तिच्या
मन खुळ्यागत होते
कवीतांचे पान माझे
आसवांत ओलावते
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चंद्र सांडला सांडला
ओल्या डोळ्यांच्या कडेत...
मन होतसे बेचैन
तुझ्या वेड्या आठवात
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ओंकार

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