Wednesday, December 29, 2010

त्रिवेणी...काही प्रयत्न...

सरत्या आयुष्यासह....
जाणीव नात्यांची झाली..

त्यांची किंमत समजली तोवर आयुष्यच सरुन गेलं-
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सगळ्यासकट तुला विसरायचा अट्टहास...
पुन्हा नव्यानं जगायचा केविलवाणा प्रयत्न....

पण तरीही पुन्हा कवितांमध्ये डोकावतेयस तुच
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वाटेवरुन तुझी पाऊले अलगद टिपुन घेतलीयत.
तुझा शोध घेता घेता पाऊलेच काय अंतरे सुध्दा थकलीयत

जंगलातुन वाघ खरेच गायब झालेत बहुतेक
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आयुष्याच्या पानांवर
बेरीज वजाबाकी सगळे बस ह्यातच गुंतलेले...

मीच एकटा असा गणीतापासुन दुर पळणारा...

ओंकार

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