शब्द मुके होतात तेंव्हा
पाऊस धिरगंभीरपणे बरसतो...
कधी नभांत, कधी डोळ्यांत
त्याचा गुढ भावार्थ सापडतो..
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कधी अल्लड होतो...
अन मुक्त झ-यातुन खळखळतो...
कधी अंगणातील गुलमोहोर
बनुन तुझ्यापायी बहरतो..
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कधी पाऊस पाखरु बनुन
मुक्त पंखानी वावरतो...
कधी बनुन तारा आभाळाच्या कोंदणीतुन
तुझ्या मिलनासाठी कोसळतो
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का माझे हक्काचे शब्दही
माझी साथ सोडतात..
तु निघुन गेलीस की
निळ्या शाईत तुझ्या आठवणी दाटतात
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शब्दांशी खेळण्याचे कसब
हल्ली बरे जमते मला..
तु समोर आलीस की मनातले सांगायला
का शब्दचं कमी पडतात मला?
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शब्द कोणाचे...
भावना कोणाच्या...
मन कोणाचे...
मग तरीही सगळ्यांत आजकाल तु का आहेस?
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बरसणार असा मीही असा की
त्या पावसालाही माझा हेवा वाटेल..
ऐकताना गोष्ठी माझ्या प्रियेच्या
त्या खुळ्याचाही अचानक कंठ दाटेल
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आज बोलणार तिला सारं काही
हे रोज सकाळी ठरवतो.
ति समोर आली की नेहेमीचं
तिच्या गही-या डोळ्यांत हरवतो...
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तु नाहीस समोर आज
हे मन मानत नाही..
तुझ्या अदा कागदांवर उतरवताना..
आजही कागदच मला पुरत नाहीत..
ओंकार
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